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जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ
हो, इन्कार करने वाले ? तेरा काम है द्वार खोलना, बस द्वार खोलो और अपना रास्ता नापो । - - कणिक गरज उठा ।
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देवता ने फिर समझाया -- "राजन् नकल, नकल है । वह असल का काम नहीं कर सकती ये चौदह रत्न तुम नकली बनाकर लाए हो । कहीं ऐसे चक्रवर्ती बना जाता है ? सिंहचर्म ओढ़कर शृगार सिंह कैसे बन सकता है ? मान जाओ, तुम चक्रवर्ती नहीं हो सकते। अपनी कुशल-क्षेम चाहते हो, तो लौट जाओ ।"
कूणिक का क्रुद्ध अहं फुफकारने लगा । वह देवता पर गरम हो उठा। हाथ में अपना कृत्रिम दण्डरत्न उठाया और देवता को ललकारा । द्वार खोलने की चुनौती दी ।
देवता ने आखिरी चेतावनी दी -- “ मदान्ध सम्राट् ? पागल न बनो । अपने भले के लिए लौट जाओ । में कहता हूं, द्वार नहीं खुलेगा | खबरदार उसको छ भी लिया तो ..! -
इस पर कुणिक जड़ा रहा और द्वार तोड़ डालने के लिए ज्यों ही दण्ड को जोर से मारा कि द्वार से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ फूट पड़ीं, कूणिक वहीं पर ज्वालाओं में 'झुलसकर देखते-ही-देखते राख का ढेर हो गया ।
- आदश्यक चूणि, उत्तरार्द्ध पत्र १७६ - दशवेकालिक, हारिभद्रीय पृ० ४ *
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