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जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ
किये । मित्र राजाओं की और अपनी सेनाएँ साथ लीं, और बड़ी धूम-धाम से छह खंड की विजय यात्रा करने के लिए निकल पड़ा | बाहुबल और सैन्य बल के अभिनिवेश में चूर कूणिक आगे बढ़ता गया । तीन खंड विजय करने के बाद वैताढ्य पर्वत की तमिस्रा गुफा के द्वार पर पहुंचा। तीन दिन का उपवास करके द्वार-रक्षक देव को याद किया । कृतमल नामक द्वार - रक्षक देवता आकर आकाश में उपस्थित हुआ और पूछा -- "तुम कौन हो ? किस लिए यहाँ आए हो ?"
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कूणिक ने अहंकार भरे शब्दों में कहा -- " मैं मगध नरेश अजातशत्रु कूणिक हूं । भारतवर्ष के छहों खण्डों को विजय करके चक्रवर्ती बनूँगा । द्वार खोलो, मुझे वैताढ्य पर्वत के उत्तर में दिग्विजय करने के लिए जाना है ।"
देवता ने कहा--" राजन् ! लौट जाओ ! तुम महत्व - कांक्षाओ के तूफान में भटक गए हों । कालचक्र के नियमानुसार इस युग के बारह चक्रवर्ती हो गये, अब कोई अन्य चक्रवर्ती सम्राट् इस युग में नहीं हो सकता ।"
"मैं तेरहवाँ चक्रवर्ती बनूँगा । मेरी भुजाओं में बल है । बड़े-बड़े मुकुट - बद्ध छत्रपति राजा मेरे अधीन है । सागर की उन्मत्त लहरों की तरह विशाल सेना मेरे पीछे बढ़ी आ रही है । चौदह रत्न मेरे पास हैं । मैं चत्रवर्ती क्यों नहीं बन सकता ! मैं चक्रवर्ती बनूँगा, अवश्य बनूँगा । तुम कौन होते
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