Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 38
________________ उदायन का 'पर्युषण' "महाराज, गजब हो गया ! अवन्तीपति चन्द्रप्रद्योत अपने सुप्रसिद्ध 'अनलगिरि' हाथी पर चढ़कर एक चोर की तरह वीतभयपत्तन में घुसा और कुब्जा दासी को चुरा कर भाग गया।" प्रातः उठते ही राजर्षि उदायन को प्रतिहार ने अशुभ समाचार सुनाए । """अच्छा, अवन्तीपति का यह साहस ! हमारी दासी को चुराकर ले गया ।" सिन्धु-सौवीर के सम्राट उदायन के स्वर में उपहास-मिश्रित रोष झलक रहा था । "नहीं, महाराज ! सिर्फ दासी को ही नहीं, किन्तु स्वर्गीय महारानी की आराध्य देवप्रतिमा को भी चुराकर ले गया।" प्रतिहार ने पुनः निवेदन किया । राजा के भुजदण्ड फड़क उठे- "यह हिम्मत कामी चन्द्रप्रद्योत की ? उदायन युद्ध से घृणा अवश्य करता है, किन्तु डरता नहीं है। दुष्ट को दुष्टता का दण्ड मिलना ही चाहिए।" उदायन ने सेनापति को अवन्ती पर आक्रमण के लिए तैयार हो जाने का आदेश देकर दूत के हाथ चन्द्रप्रद्योत को संदेश भेजा-"वीतभय की चुराई हुई दासी और देव-प्रतिमा या तो लौटा दो, अन्यथा उन दोनों के साथ अपने प्राण भी देने को तैयार हो जाओ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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