Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 60
________________ स्नेह के धागे ५१ ! शाला खोल दी । दान का दान और खोये हुए की पहचान दानशाला में प्रतिदिन सैकड़ों भिक्षु आते जाते रहते और उन्हीं में श्रीमती की पैनी आँखें अपने देवता को टोहती रहतीं । श्रीमती दानशालाध्यक्ष के रूप में कार्य करती रही, और समय बीतता गया । - एक दिन आर्द्रक मुनि वसन्तपुर के उसी मार्ग पर चले आए । श्रीमती ने देखा, तो तुरन्त पहचान लिया । वह दौड़ कर मुनि के चरणो में लिपट गई । “मेरे देवता ! यों ठुकराओ मत मुझे स्वीकार करके नव जीवन दो ।" श्रीमती के मधुर कंठ से चिररुद्ध राग की वाणी फूट पड़ी, आँखों से स्नेह के आँसुओं की धारा बह निकली। मुनि के पैर आँसुओं की धारा को पारकर आगे बढ़ नहीं सके । इतने में श्रीमती के मला पिता दौड़े आये, बहुत विनती करने लगे"महाराज ! यदि आप इसे स्वीकार नहीं करेंगे, तो आपके नाम पर यह प्राण त्याग देगी, आपके बिना इसका जीवन सूना पतझर है। आपको मालूम होना चाहिए, यह उसी खेल के दिन से आज तक आपकी याद में तिल-तिल कर जल रही है । " - श्रीमती के स्नेह पर आर्द्रक मुनि का हृदय पिघल गया । स्नेह यदि मनुष्य को कर्तव्य का मार्ग दिखाने वाला दीपक है, तो भटका देने वाला गहन अंधकार भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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