Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 65
________________ जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ जैसे स्वर्गलोक का कोई देवकुमार अभी-अभी संन्यास लेकर धरती पर उतरा है। समाधि का समय पूरा हुआ। मुनि ने ध्यान खोला । सामने मगधपति विचारों में कुछ खोए खोए-से करबद्ध खड़े हैं। मुनि की तेजोदीप्त मुखमुद्रा के समक्ष सम्राट का राजगौरव से गर्वोन्नत मस्तक भी सहज श्रद्धा से झुक गया। नम्रता पूर्वक सम्राट् बोले-"मुने ! भोग की अवस्था में योग ? आनन्द और विलास के समय में विरक्ति ? तुम्हारा सहज सुकुमार सौन्दर्य कठोर मुनिचर्या के योग्य नहीं है। तुम अभी भिक्षु कैसे बन गए ?" ___ मुनि ने गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया--"राजन् ! मैं अनाथ था, कोई सहारा नहीं था, इसलिए भिक्षु बन गया।" श्रेणिक ने मन-ही-मन सोचा--"ठीक तो है। अनाथ आर असहाय लोगों के लिए भिक्षु होने के सिवा और चारा ही क्या है ?" सम्राट् के अन्तर्मन में सहज करुणा जगी-"राष्ट्र का होनहार युवक भिक्षु बनता है, अभाव की ठोकरें खाकर । यह कैसे हो सकता है ? मैं सम्राट् हूं, मेरा कर्तव्य है-मैं राष्ट्र की उठती तरुणाई को अभाव-मुक्त करू ।" सम्राट् ने आश्वासन की भाषा में कहा- "हाँ, तो युवक ! तुम नाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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