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५४ जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ
आर्द्र क कुमार अर्धनिद्रित-से माँ - बेटे का यह संवाद सुन रहे थे । अबोध बालक की कच्चे धागों से जकड़ने की चेष्टा देखी, तो उनका हृदय गद्-गद् हो गया। बालक की निश्छल सहज ममता ने आर्द्रक के हृदय को द्रवित कर दिया। उन्हें लगा, सूत के ये स्नेह-सिंचित कच्चे तार वज्रश्रृंखला से भी अधिक मजबूत हैं । पुराना कथाकार कहता है-सूत के कच्चे तार वन के हो गये थे, तोड़ने के लिए बहुत बल लगाने पर भी टूट नहीं सके। आज के संदर्भ भी यह वज्रता धागों की नहीं, स्नेह की थी। जो चरण उन्मुक्त विहार के लिए उठ रहे थे, वे अब पुत्र की ममता में बड़ी मजबूती से बँध गए।
सूत के बारह आँटे लगे थे। आर्द्रक कुमार ने निश्चय किया कि अब बारह वर्ष तक और घर में रह कर पुत्र की शिक्षा - दीक्षा का प्रबन्ध करूंगा। समय बीतता गया। शिक्षा होती रही । ज्यों ही बारह वर्ष बीते, आद्रक श्रमण भगवान महावीर के चरणों में पहुंचे और पुनर्दीक्षित होकर आत्म-साधना का अमर आलोक प्राप्त किया।
-सूत्रकृतांग, नियुक्ति चूर्णि, टीका
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