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नाथ कौन ?
हो ? कोई सहारा नहीं ? चलो, मैं तुम्हारा नाथ होता हूं। मेरे साथ आओ, छोड़ो यह सब प्रपंच और मानव-जीवन का मुक्त आनन्द उठाओ।
जो स्वयं अनाथ हो, वह दूसरों का नाथ कैसे हो सकता है ?"---मुनि ने धीर - गम्भीर वाणी में छोटा - सा उत्तर दिया।
मगधपति श्रेणिक मुनि का उत्तर सुनकर सन्न रह गया। सोचा, इस श्रमण को अभी यह पता नहीं कि मैं कौन हूं? मगध का सम्राट और अनाथ ? यदि मुझे जानता होता तो ऐसा कैसे कहता ? विक्षिप्त भी तो नहीं, जो यों ही मन में आया, बोल गया हो !
सम्राट ने अपना परिचय देते हुए कहा- "मुनिवर ! आपको नहीं मालूम मैं मगध सम्राट श्रेणिक हूं। बड़े-बड़े दुर्दान्त शत्रु मेरे नाम से काँपते हैं । पवन से होड़ लेने वाले अश्व और कज्जलगिरि के समान गजराज हजारों की संख्या में मेरे पास है । वैभव के अक्षय भण्डार भरे हुए हैं। सामने खड़े महलों की गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ मेरे ऐश्वर्य की कहानी कह रही है । बड़े-बड़े वीर योद्धा, मेरे समक्ष नतमस्तक हैं । हजारों ही दास - दासी प्रतिक्षण मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं । आपको मालूम नहीं, इसलिए मुझे अपने मुंह से अपना परिचय देना पड़ा है। आप चलिए, राजमहलों में आनन्द से रहिए । सैकड़ों सेवक-सेविनाएँ आपकी सेवा में
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