Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 68
________________ नाथ कौन ? ५६ का प्रश्न था । कृत्रिम नहीं, बिलकुल सहज । भौतिक वैभयं सम्पन्न सम्राट् समझ नहीं पा रहे थे कि इतने बड़े ऐश्वर्य के सिहासन पर भी यह तरूण अनाथ- कैसे हो गया और भिक्ष क्यों बन गया ? मुनि और सम्राट के वैचारिक धरातल में बहुत बड़ा अन्तर था। दोनों दो किनारों पर ! एक की बोलने की भाषा आध्यास्मिक थी, तो दूसरे की भाषा श्री निरी भौतिक । .. "एक दिन मेरी आँखें दुखने लगीं। अनेक वैद्य आए। मंत्र-तंत्र और औषध कारके हार गए। जड़ी-बूटो कोई काम नहीं कर सकी। मैं भयंकर वेदना से छटपटाता रहा । मेरे -पिता चानी की तरह धन बहा रहे थे।" वे बार-बार कहते-"कोई मेरे पुत्र की वेदनाः शान्त कर दे, तो मैं इसे सारी गम्पति दान कर दूं।' पर ज्यों - ज्यों उपचार हुए, मेरी वेदना शान्त होने के बदले बढ़ती ही गई। मुझे वेदना में नड़पता देखकर मेरी मां आयुओं में भीगी मेरे सिर पर हाथ रग्ने वैठी रहती थी। जिससे भी और जो भो सुना, सब देवीदेवताओं की मनौतियाँ उसने मान लीं। सिद्ध-मंत्रवादियों के द्वार-तार वह भटेक आई । पर, आखिर में असहाय होकर मेरी देना को देखकर रोती रहती। वह विवश थी, सबकुछ वने पर भी कुछ न कर सकी। की पत्नी सेवा में प्रतिक्षा तार रहती । मेरे लिए वह देने को तैयार थी। पर, वर भी मेरी पीड़ा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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