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नाथ कौन ? "मैं उस दिन इन्हीं विचारों में रहा, और सोचता रहा कि कोई किसी का नाथ नहीं है, रक्षक नहीं है । मनुष्य स्वयं ही स्वयं का नाथ है, आत्मा ही आत्मा का रक्षक है,अत्ताहि अत्तनो नाथो' । आत्मा ही नरक है । आत्मा ही स्वर्ग है । आत्मा ही नरक का कूट - शाल्मली वृक्ष है, तो आत्मा ही नन्दन वन है। आत्मा ही अपना मित्र है, जब वह धर्मानुकूल आचरण करता है, और आत्मा ही अपना शत्रु है, जब वह धर्मविरुद्ध पापाचरण करता है । अपने को छोड़कर अन्यत्र सुख कहाँ है ? और सुख...? वास्तव में वह सुख क्या है ? इन बाह्य वस्तुओं में सुख होता, तो मेरे माता-पिता मुझे यों वेदना में तड़पने नहीं देते । बाहर में सुख नहीं है । सुख तो अन्तर् में है, । आत्मा में है। उसी सुख को प्राप्त करना चाहिए, जो सच्चा सुख है। जो भ्रम नहीं, यथार्थ है । यह विचार करते - करते मुझे कुछ शान्ति मिली। लगा, जैसे पीड़ा कम हो रही है, आँखों में आज बहुत दिनों के बाद हल्की झपकियाँ आ रही हैं । कुछ ही देर में मेरी आँख लग गई। मैं शान्ति से सो गया। घर के लोग बहुत प्रसन्न हुए कि कुमार को आज कुछ आराम मिला है। प्रातः उठा तो मेरी वेदना बिल्कुल शान्त हो चुकी थी, तन के साथ मन भी अब मेरा शान्त था। रात में उठे हुए संकल्प मुझे अमर आत्मशान्ति की ओर प्रेरित कर रहे थे । माता-पिता के हृदय की ममता अब मुझे रोक नहीं सकी, पत्नी का स्नेह मुझे बाँध
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