Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ मांस का मूल्य ६६ सामन्तों के उत्तर पर अभयकुमार का यह गम्भीर मौन सभासदों के हृदयों को चंचल कर रहा था। अभय ने कहा"महाराज ! प्रश्न इतना सरल नहीं कि तुरन्त इसका उत्तर दे दिया जाय । मैं सोच - विचार के लिए आज की रात का अवकाश चाहता हूं। कल प्रातःकाल हो सका तो श्रीचरणों में उत्तर उपस्थित कर दूणा।" ____ सभा विसर्जित हो गई। मगधेश का प्रश्न अधूरा ही रह गया। ____ 'मनुष्य का मन कितना विचित्र है ! अपने प्राण उन्हे प्रिय हैं। पर, दूसरे के प्राणों का कोई मूल्य नहीं उसके लिए ? क्या दुर्बल और निरीह प्राणी का जन्म मानव के मनोरंजन के लिए ही हुआ है ? उसके अपने जीवन का कोई महत्त्व नहीं है ? असंख्य स्वर्ण-मुद्राओं से भी अति दुर्लभ ये प्राण क्या मृगयासक्त के एक बाण से भी अधिक सुलभ और सस्ते हैं ? नहीं, यह तो अज्ञान है । जब तक अपने प्राणों के समान ही दूसरे के प्राणों का मूल्य नहीं समझा जाता, तब तक मनुष्य यो ही बहकता रहेगा। 'पर' के साथ 'स्व' की ऐक्यानुमति--यही तो करुणा का स्रोत है। जब तक हृदय में करुणा का उदय नहीं होता, तब तक मनुष्य पराये दुःख और कष्ट की अनुभूति नहीं कर सकता।' अभयकुमार इन्हीं विचारों में डूबता-उतराता राजसभा से निकल गया। चिंतन में वह इतना गहरा उतर चुका था कि उसे पता ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90