Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 82
________________ मांस का मूल्य ७३ "महाराज ! दो तोले मांस का यह मूल्य हो सकता है, तो जिसका सारा मांस निकाला जाता है, उसके प्राणों का क्या मूल्य होगा ? असंख्य स्वर्ण - मुद्रा देकर क्या किसी के प्राण का मूल्य चुकाया जा सकता है ? फिर यह कैसी बहक है कि मांस सस्ता है ? हम अपने प्राण और अपने मांस का जो मूल्य आँकते हैं, वही मूल्य दूसरे का प्राण और मांस का क्यों नहीं आँकते ? जीवन का मूल्य अनन्त है । मनुष्य सिर्फ अपनी रस- लोलुपता और विषयान्धता के वश दूसरों के जीवन के साथ खिलवाड़ करता है, और उसका कुछ भी मूल्य नहीं समझता है । जब वह दूसरों के मांस को अपने मांस से तौलेगा, तभी वह ठीक तरह समझ सकेगा कि वास्तव में मांस का क्या मूल्य हो सकता है ?" सभा में सन्नाटा छा गया । सामन्तों की आंखें जमीन में झुकी जा रही थीं । विचारों में एक गहरी उथल-पुथल थी । महामंत्री के विवेक-युक्त विश्लेशण पर सब कोई चकित थे । अभय कुमार ने सामन्तों के साथ हुए रात्रिकालीन गुप्त । वार्तालाप का विश्लेषण करते हुए बताया कि एक मनुष्य ही क्या, प्राणिमात्र में जीने की इच्छा कितनी प्रबल होती है ? कोई भी प्राणी अपनी मृत्यु नहीं चाहता।" फिर अपनी जिह्वा की लोलुपता के कारण मनुष्य किसी के प्राणों को लूट कर उन्हें सस्ता कैसे कह सकते है...? ⭑ उपदेशतरंगिणी, पृष्ठ १० ( आचार्य रत्नमंदिर गणी ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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