Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 84
________________ तेरहवाँ चक्रवर्ती भगवान् ने कूणिक को उद्बोधित करते हुए कहा"राजन् ! भक्ति और श्रद्धा की बात करते हो ? परन्तु इससे पहले जरा अपना जीवन तो देखो ! स्वर्ग और नरक में कोई किसी को भेज नहीं सकता, कोई किसी को रोक नहीं सकता । अपने अच्छे-बुरे आचरण ही आत्मा को स्वर्ग और नरक की यात्रा पर ले जाते हैं । तटस्थ होकर अन्तर्दृष्टि से अपने कृत कर्मो को देखो, समाधान मिल जाएगा ।" M - ७५ 1 भगवान् की वाणी पर सम्राट् कुणिक क्षण-भर स्तब्ध रह गया । वह मन-ही-मन सोचता रहा "इतने निस्पृह हो प्रभु तुम ? अपनी भक्ति करने वालों को भी नरक से नहीं स्वारते ?' और फिर उसकी दृष्टि जरा अन्तर् में धूम गई'प्रभु ठीक हो तो कह रहे हैं, कितना निकृष्ट रहा है मेरा जौवन ! राज्यलिप्सा के लिए मैंने अपने भाइयों को गाँठ कर पिता को कैद में डाला, भयंकर यातनाएँ दीं। छोटे भाइयों की सम्पत्ति पर भी ललचाता रहा। उनसे हार एवं हाथी छीनने के लिए भयानक युद्ध किया । वैशाली के रणक्षेत्र में भयंकर जन - प्रलय मचाने वाला कौन है ? मैं ही तो हूं । मनुष्यों के रक्त से आप्लावित वह लाल मिट्टी युग - युग तक मेरी क्रूरता की कहानी कहती रहेगी। अपनी महत्त्वा-कांक्षाओं की पूर्ति के लिए भाइयों को युद्ध की अग्नि में होम डाला, नाना चेटक के करुण विनाश का निमित्त भी मैं ही हूं । लाखों माताओं की गोद सुनी हो गई । सहस्राधिक तरुणियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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