Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 64
________________ 45 नाथ कौन ? "जो स्वयं अनाथ है, वह दूसरों का नाथ कैसे बन सकता है ? " -- तरुण योगी के छोटे-से उत्तर ने मगध सम्राट् श्रेणिक के अहं ग्रस्त हृदय को सहसा झकझोर दिया । राजगृह के बाहर 'मण्डित कुक्षि' नाम का एक चैत्य ( उद्यान ) था । उद्यान में तरह-तरह के वृक्ष, लता और गुल्म हवा के हल्के-हल्के झोंको से जैसे मस्ती में झूम रहे थे । सव ओर रंग-बिरंगे, सुन्दर और सुगन्धित पुष्प खिले हुए थे 1 शीतल - मन्द समीर अपने हर हल्के झोंके के साथ मुक्त भाव से सौरभ बिखेरता चल रहा था । विहार यात्रा करते हुए मगधाधिपति श्रेणिक एक दिन अकल्पित ही इधर आ निकले । सम्राट् ने देखा, उद्यान के एक कोने में वृक्ष में नीचे, एक तरुण योगी कब से ध्यान लगाये खड़ा है । उसकी स्निग्ध निर्मल दृष्टि अपलक नासिका के अग्रभाग पर जमी हुई है । शरीर सीधा दण्डायमान प्रस्तर सर्वथा स्थिर है । उसके विशाल ललाट पर अद्भुत तेज चमक रहा है । जैसे कोई दिव्य ज्योति अन्दर ही अन्दर जल रही है । और, चारों ओर उसकी प्रभा विकीर्ण हो रही है । उसके पद्मगौर मुखमण्डल पर सुकुमार सौन्दर्य दमक रहा है । सम्राट् योगी की ओर अपलक देखता रहा । उसे लगा, प्रतिमा की तरद www Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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