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स्नेह के धागे
ने माँ को सूत कातते देखकर पूछा - "माँ, यह क्या कर रही हो ?"
"बेटा, सूत कात रही हूं । तुम्हारे पिता अब हमको अनाथ छोड़कर साधु बन रहे हैं। ! तो अब हमको निर्दोष आजीविका के द्वारा पेट भरने के लिए कुछ - न - कुछ उद्यम तो करना ही होगा । एक विपन्न नारी के लिए चरखे से बढ़कर और क्या सहारा हो सकता है ?" कहते कहते श्रीमती की आँखें बरस पड़ीं ।
"माँ, पिताजी हमें क्यों छोड़ रहे ? क्या हम से नाराज हो गये हैं ?"
"नहीं बेटा, नाराज तो नहीं हुए । पर कहते हैं कि अब हम साधु बनेंगे। भगवान महावीर के चरणों में जाएँगे और साधना करेंगे ।"
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"नहीं माँ, नहीं ! मैं पिताजी को ऐसे नहीं जाने दूँगा । फिर हम क्या करेंगे? मैं अभी पिताजी को बाँध लेता हूं, देख फिर कैसे जायेंगे ?"
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अबोध बालक ने तकुए से सूत उतारा और शय्या पर लेटे हुए पिता के पैरों को आँटे देकर बाँध दिया । खुशी में तालियाँ बजाता हुआ दौड़ता आया माँ के पास, और बोला - "माँ, मैंने पिताजी को बाँध दिया है, अब वे नहीं जा सकेंगे ।" माँ ने नटखट बच्चे को पकड़ कर गोद में लेते
हुए प्यार से चूम लिया ।
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