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उदायन का 'पर्युषण'
हाथी पर आते देखा, तो फटकारा - 'कायर ! यह क्या ? तूने युद्ध से पहले ही निश्चित प्रतिज्ञा भंग कर दी ? किन्तु कुछ भी हो, आज तू मेरे हाथों से बचकर नहीं जा सकता ।” और, दोनों योद्धा दो जलभरे काले मेघों की तरह प्रचण्ड गर्जना के साथ युद्धक्षेत्र में टकरा गये। दोनों ओर की सेनाएं दर्शक बनकर दूर खड़ी रहीं । उदायन ने पलक मारते ही रथ को बिजली की तरह अतिशीघ्र चक्रगति से घुमाया और अनलगिरि के पैरों पर भयंकर बाण बर्षा शुरू कर दी । देखते ही देखते अनलगिरि के चारों पैर बानों से बिंध कर छलनी हो गए। रक्त के फव्वारे छुट गये, और वह घायल होकर भयानक विघाड़ मारता हुआ रणक्षेत्र में गिर पड़ा। हाथी के गिरते ही चण्डप्रद्योत भागने की चेष्टा करने लगा, किन्तु वीर उदायन ने उसे तत्काल बन्दी बना लिया ।
संसार युग-युग तक उसकी उद्दाम काम - लिप्सा को दुत्कारता रहे इसलिए उदायन के आदेश से चण्ड प्रद्योत के भाल पर 'दासीपति' शब्द उट्टं कित कर दिया गया।
इधर चण्ड प्रद्योत की पराजय का समाचार सुना, तो दासी कहीं अन्यत्र भाग गई । अवन्ती के नगरजनों के आग्रह पर उदायन ने देव प्रतिमा वहीं स्थापित कर दी । चण्डप्रद्योत को बन्दी बनाकर उदायन ने वीतभय की ओर प्रस्थान किया ।
वर्षाकाल प्रारम्भ हो चुका था, पर्युषण पर्व का समय निकट से निकटतर आता जा रहा था । उदायन श्रमण
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