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अधूरी जोड़ी
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हवा बह रही है और थर-थर काँपता हुआ एक हुआ एक गरीब बूढ़ा नदी के प्रवाह में बहकर आती लकड़ियों को बीनकर एक बड़ा-सा गट्टर बाँध रहा है कितना दरिद्र ! और कितना असहाय होगा बेचारा, वह !"
प्रातः राजसभा में पहरेदारों ने एक व्यक्ति को उपस्थित किया - "महाराज ! रात में जो नदी के प्रवाह में लकड़ियां बीन रहा था, यही है वह !"
राजा ने ऊपर से नीचे तक गहरी दृष्टि डाली । शरीर पर सुन्दर रेशमी वस्त्र हवा के हलके झोंकों से हिल रहे हैं । कानों में मणि-जटित कुण्डल दमक रहे हैं और हाथों की अंगुलियों में चमकती रत्न जटित मुद्रिकाएँ अपनी अलग ही आभा बिखेर रही हैं ! राजा को लगा, पहरेदारों ने भूल से किसी सभ्य श्रेष्ठी को पकड़ लिया है । राजा की आँखों में सन्देह तैर गया, उसने कठोर शब्दों में पहरेदारों को डांटा ।
पहरेदारों ने निवेदन किया- "महाराज, यही है वह वृद्ध पुरुष ! बुलाकर लाने में भूल नहीं हुई है ।"
राजा ने श्रेष्ठी को अपने निकट बुलाया और धीरेसे पूछा - " क्या रात की हकीकत सच है ? तुम्हीं नदी पर लकड़ियाँ ...।”
"हाँ, महाराज" - उसका स्वर थोड़ा-सा कम्पित था,
कुछ
दबा हुआ-सा भी ।
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