Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 52
________________ अधूरी जोड़ी पूँछ पर नीलम पन्ने ! रानी और मंत्री देखते ही सब-के-सब · ४३ ठगे से रह गए। आज तक ऐसा बैल देखना तो दूर, कल्पना में भी नहीं आया था। बैल क्या है, मानो साक्षात् धनपति कुबेर ही वृषभ बन कर खड़ा है । सम्राट् की स्तब्धता को भंग करते हुए मम्मण ने कहा"महाराज अब मेरे दूसरे वक्ष में चलिए । राजा-रानी और मत्री मम्मण के पीछे-पीछे भूमिगृह के दूसरे कक्ष में आये । एक परदा हटा और चारों ओर चन्द्रमा की चाँदनीसी छिटक गई । ठीक उसी की जोड़ी का यह दूसरा बैल था। वैसे ही बहुमूल्य नीलम, पन्ने, वैडूर्य और मुक्ता इस सोने के बैल में भी जड़े हुए थे । सम्राट् को सम्बोधित करके मम्मण ने कहा"महाराज ! यह बैल भी करीब-करीब बन चुका है । आप देख रहे हैं – सिर्फ इसके एक सींग का थोड़ा-सा किनारा ( नोंक ) ही बाकी रहा है । कुछ बहुमूल्य मणि इसमें और लगेंगे । मेरी सम्पति समाप्त हो चली है । धनाभाव ने मुझे I I घेर लिया है । जो कुछ था सब लगा चुका । अब सींग को पूरा करूँ तो कैसे करूँ ? इस कमी को पूरा करने की मेरी तीव्र अभिलाषा है । इसीलिए दिन में दुकान पर बैठता हूँ 1 रात में लकड़ियाँ लाकार बेचता हूं । नदी के प्रवाह में सुदूर पर्वतों से बहकर आती लकड़ियों में कभी-कभी बहुमूल्य चन्दन भी आ जाता है, इसलिए नदी पर लकड़ियाँ बीनता हूँ, उन्हें बेचकर धन जमा करता हूँ । थोड़ा और धन जमा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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