Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 56
________________ स्नेह के धागे ४७ में एक बिल्कुल नयी अद्भुत चीज देखी। वह विचार करने लगा-'यह क्या है ? किसलिए भेजी गई है ? कभी कहीं ऐसी चीज मैंने देखी?' मन में विचार गहरा और गहरा उतरता गया। सोचते-सोचते उसका सरल हृदय जागृत हो उठा। उसे पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई । उसे याद आया कि 'पिछले जन्म में मैंने ऐसी ही कुछ धर्म-साधना की थी। अमुक अमुक प्रकार के व्रत-नियम ले रखे थे ।' अब तो आईक कुमार को क्षण-भर के लिए भी चैन नहीं पड़ा । अभयकुमार से मिलने को हृदय उत्कंठित हो गया । पर, इतनी दूर जाए भी तो कैसे ? पिता से अनुमति माँगो, तो अपने एकमात्र लाड़ले पुत्र को यों सुदूर पराये देश में भेजना उन्हें बिल्कुल ही ठीक नहीं लगा। आर्द्र क का मन उचटा - उचटा रहने लगा। उसके चेहरे की प्रसन्नता गायब हो गई । रह-रह कर उसका मन भारतवर्ष में जाकर पुनः उसा प्रकार की (पिछले जन्म की तरह) धर्म-साधना करने का हो रहा था । पिता ने आर्द्र क कुमार को उदास रहते देखा तो सोचा, कहीं भाग न जाए ? इसलिए पाँच सौ विश्वस्त सुभटों की एक यूनिट उसके साथ कर दी। आर्द्रक कुमार जहाँ-कहीं भी जाता, सुभट उसके साथ - साथ रहते । उसकी प्रत्येक गतिविधि पर प्रच्छन्न रूप से कड़ी नजर रखो जाने लगी। एक बार वन-विहार के बहाने से आर्द्र क कुमार जंगल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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