Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 45
________________ जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ हृदय में सच्ची क्षमा है, सरलता है, तो मुझे मुक्त करो, तभी इस क्षमापना का कुछ अर्थ है ! “यद्यपि चण्डप्रद्योत जैसे दुर्दान्त शत्रु को इस प्रकार सहज ही छोड़ देना राजनीति को एक भूल मानी जा सकती है, किन्तु उसे इस पवित्र प्रसंग पर बन्दी रखना सम्राट की वीरक्षमा की पराजय भी तो थी। विचारों में द्वन्द्व मच गया धर्म और राजनीति का ! अमृत और विष की टक्कर थी यह । अन्ततः अमृत की ही विजय हुई। सम्राट उदायन राज्य में रहते हुए भी राजर्षि थे, युद्ध. वीर होते हुए भी क्षमावीर थे। उनकी वीरक्षमा मुखर हो उठी-"सेनापति ! चण्डप्रद्योत को मुक्त कर दो। मैंने इसे क्षमा कर दिया है । अब यह मेरा शत्रु नहीं रहा, मित्र है, सहधर्मी है।" उदायन की वीरक्षमा पर चण्ड प्रद्योत स्वयं चकित - सा देखता रह गया । क्षणभर में उसके बन्धन खोल दिए गए और उदायन ने स्नेह-पूर्वक चन्द्रप्रद्योत से क्षमापना की। आवेशवश भाल पर अंकित किया गया शब्द 'दासीपति' स्वयं उदायन की आँखों में खटक गया। इसे ढकने के लिए चण्डप्रद्योत के भाल पर स्वर्णपट्ट बाँधा गया। उदायन ने उसे अपना पट्टबन्ध मित्र राजा बना कर विदा किया अवन्तीपति सम्राट के रूप में। -निशीथ चूणि भाग ३ पृ० १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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