Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 44
________________ ३५ विना विचारे जो करे अच्छी बात सोच भी कैसे सकता था ? "महाराज भोजन नहीं करेंगे, तो मैं भी नहीं करेंगा। मुझे भी संवत्सरी पर्व का उपवास करना है। मेरे माता पिता भी जैनधर्मी थे भाई ! " चण्ड प्रद्योत ने अपनी कल्पित विपत्ति से बच निकलने के मनोभाव से कहा । PO उदायन को जब यह सूचना मिली कि चण्डप्रद्योत भी संवत्सरी का उपवास करेगा, तो उनके हृदय में सहधर्मी का वात्सल्य भाव जाग उठा । सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर उसके गुरुतर अपराध को भी भुलाकर वे सांवत्सरिक क्षमा-याचना करने के लिए बन्दी चण्डप्रद्योत के समीप विनम्र भाव से पहुँचे । अखिल विश्व के प्राणिमात्र से क्षमापना करने वाला साधक अपने निकट के शत्रु से क्षमा-याचना न करे, तो आपका सांवत्सरिक आराधना, क्षमापर्व की उपासना परिपूर्ण कैसे हो ? मित्र-तो-मित्र है ही, शत्रु के प्रति भी मित्रभाव जागृत हो, यही तो क्षमा की सच्ची आराधना है । उदायन का चिन्तन प्रबुद्ध हुआ और उसने बन्दी चण्डप्रद्योत से करबद्ध क्षमापना की – “सहधर्मी बन्धु ! मैं तुम्हें खमाता हूँ ।" चालाक चण्डप्रद्योत इस अवसर को हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था, तुरन्त बोल उठा - "यह कैसी क्षमा ? मुझे पशु की तरह लोहे के पिंजड़े में डाल रखा है और सहधर्मी बन्धु का ढोंग करके क्षमा याचना कर रहे हो ? यदि तुम्हारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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