Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ ३० जैन इतिहास को प्रसिद्ध कथाएँ महा अभिमानी चन्द्रप्रद्योत ने ली हुई वस्तु लौटाना सीखा ही नहीं था । फिर स्वर्णगुलिका दासी तो अपनी स्वयं की इच्छा से उसके साथ आई थी। उसी ने संकेत करके चन्द्रप्रद्योत का अपने सौन्दर्य-दीपक का पतंगा बनाया था। क बड़ी और कुरूप दासी को एकाएक अयाचित सौन्दर्य प्राप्त हो गया, जब कि गान्धार देश से आए हुए एक सद्गृहस्थ ने उसकी सेवा पर प्रसन्न होकर स्वर्ण-गुलिका' नामक एक जादूभरी गुटिका (गोली) दी थी, जिसे खाते ही कुब्जा की कुरूप वह सुन्दरता के अपार लावण्य से स्वर्णलता की तरह चमक उठी। स्वर्गलोक की अप्सरा-सा सौन्दर्य जगमगाने लगा, और उसका अंग-अंग अनोखी आभा से निखर उठा। अन्धे को क्या चाहिए, दो आँख । दासी के इस अद्भुत सौन्दर्य पर लोग उसे अब 'कृष्ण-गुलिका' की जगह 'स्वर्ण-गुलिका' कह कर पुकारने लगे। दासी अपने सौन्दर्य पर इठलाने लगी । किन्तु, उस सौन्दर्य का मूल्य उदायन जैसे चरित्रनिष्ठ राजा से पाना असम्भव था। और दूसरा कोई रूप का दीवाना पतंगा उदायन के देवमन्दिर को पुजारिन दासी के सौन्दर्य की लो पर निछावर हो जाए, यह साहस भी किस में था ! बड़े-बड़े राजकुमार, सेनापति और सम्राट उदायन के नाम से काँपते थे। कुब्जा को हाथ लगाने के दुस्साहस का अर्थ मौत से खेलना था। दासी इस बात को अच्छी प्रकार समझ रही थी, इसीलिए चन्द्रप्रद्योत उसकी पैनी निगाहों में समा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90