Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 34
________________ विना विचारे जो करे २५ किर नदी के किनारे खड़े उस तपोधन मुनि की कल्पना स्मृति-पट पर सहसा उतर आई। रानी के मुंह से भावावेश में निकल पड़ा-"अहो, इस समय उनका क्या हाल होगा ?', सम्राट् श्रेणिक अनिद्रित · से करवट बदल रहे थे। चेलना के ये शब्द-- "उनका क्या हाल होगा !" सम्राट् के हृदय में अटक गए । “जरूर यह किसी अन्य पुरुष से प्रेम कर रही है। नींद में भी उसी के बारे में इसका चिन्तन चल रहा है। जो बात जागते हुए मुंह से नहीं निकलती, वह कभीकभी नींद की बेहोशी में सहजतया निकल जाती है।" रानी के दुश्चरित्र होने के बारे में सम्राट का मन एकाएक संदिग्ध हो उठा । सोचा-"जब मेरी प्राणप्रिया राजमहिषी का भी यह हाल है,तो अन्य रानियों के चरित्र के सम्बन्ध में मैं क्या विश्वास करु ? स्त्री का चरित्र बड़ा विलक्षण होता है। उसके सतीत्व के बारे में कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।" बस दुष्कल्पनाओं में सम्राट का मन संशयाकुल हो गया, नींद हराम हो गई। सम्राट् प्रातः होते ही राजमहल से नीचे आये । मन में भारी उथल-पुथल मचो थी, चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। विवेक पर वहम का काला पर्दा ऐसा गिरा कि कुछ भी सोच नहीं सके । महामंत्री अभयकुमार को सम्राट ने बुला कर कहा-"अभय ! रानियों सहित समूचित अन्तःपुर को अभी का-अभी जला डालो। तुरन्त मेरे आदेश का पालन होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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