Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 32
________________ मन की लड़ाई २३ उसका मनोवेग टकराया- ' अरे ! मैं तो मुकुटधारी राजा नहीं, एक नग्न सिर वाला साधु हैं । कहाँ भटक गया में ? कौन है मेरा शत्रु ? किससे कर रहा हूँ युद्ध ?' मन का कुरुक्षेत्र अब फिर धर्मक्षेत्र में बदलने लगा, भावधारा मुड़ गई । युद्ध चालू रहा, पर शत्रु बदल गये । अब दूसरों से नहीं. अपने से ही युद्ध शुरू हुआ और विकारों एवं वासनाओं का संहार होने लगा । ज्यों-ज्यों तुम्हारा प्रश्न आगे बढ़ रहा था, त्योंत्यौं उसके भाव-चरण आध्यात्मिक विजय की ओर बढ़ रहे थे । छट्ट और पाँचवें नरकों से छलाँग लगाता - लगाता वह कुछ ही क्षणों में स्वर्ग की सीढ़ियों को पार कर गया । विशुद्ध भावधारा के प्रवाह में अन्तर् का कलुष घुल-धुल कर बहता गया, अन्धकार हटता गया प्रकाश जगमगाता गया. और वह भटका हुआ साधक ज्योंही साधना की सिद्धि के द्वार पर पहुँचा, तो केवली हो गया !" मनोभावों के इस विचित्र नाटक पर सम्राट् श्रेणिक गम्भीर होकर सोचते रहे "यह मन कितना विचित्र है ! ये संकल्प कितने बलवान होते हैं ? जब असत्य की ओर मुड़े, अधोमुखी बने, तो सातवें नरक तक पहुँच गए। और जब फिर सँभलकर सत्य की ओर बढ़े ऊर्ध्वमुखी बने, तो बस साधक से सिद्ध हो गऐ, मुक्ति का द्वार खुल गया । " महाराज ने गद्गद् हृदय से श्रद्धावनत होकर प्रभुचरणों में वन्दना की । - त्रिषष्टि- शलाका पुरुष चरित्र १० / ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org

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