Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 31
________________ जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ मन विचलित हो गया। वह वीतराग भूमिका से हटकर रागद्वेष की भूमिका की ओर दौड़ पड़ा। मन-ही-मन घोर युद्ध शुरु हो गया । बाहर में उसकी देह तब भी ध्यानस्थ थी, किन्तु अन्तर्मन कल्पित शत्रुओं के साथ द्वन्द्व युद्ध में संलग्न था-- शत्रुओं के खून में नहा रहा था । युद्ध और वैर के भाव बढ़े और इतने क्रूर रूप में बढ़े कि जब तुमने प्रश्न किया तब वह साधक नहीं, एक भयंकर योद्धा के रूप में विचारों हीविचारों में वह शत्रु के लिए महाकाल बन रहा था, क्रूरता और वैर की सर्वोपरि स्थिति में उस समय वह सातवीं नरक भूमि के योग्य कर्म-दलिक का बन्ध कर रहा था । अतः उस स्थिति में यदि उसकी मृत्यु हो जाती,तो वह मर कर सातवी नरक-भूमि में ही जाता।" मनोभावों के इस गम्भीर और आश्चर्यजनक विश्लेषण पर समवसरण सभा स्तब्ध थो । प्रभु ने विश्लेषण सूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा - "राजन्, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर में तो साधु थे, किन्तु अन्तर में थे एक वीर क्षत्रिय योद्धा । मन में युद्ध होता रहा ! होता रहा !! सब शस्त्र निःशेष हो गए, फिर भी एक शत्रु सामने खड़ा था । उस पर प्रहार करने के लिए जब कोई अन्य शस्त्र नहीं देखा, तो सिर के वज्र-मूकट से हो उसको मार डालने का विचार किया। और ज्यों ही हाथ सिर पर पहुँचा, तो कहां मुकुट ? वहाँ तो सफाचट था लुचिः' मस्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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