Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 30
________________ मन की लड़ाई २१ और ऐसा उठा कि वीतराग सर्वज्ञ हो गया, आपके समान बन गया । यह सब कैसे हुआ ? क्या रहस्य है इसका ! यह आपका भक्त और समूची परिषद् जिज्ञासु नजरों से सत्य को टोह रही है, कृपया उसे स्पष्ट करके दिखाने का अनुग्रह करें ?" " राजन् ! जिस समय तुम उस साधक को वन्दना करके वहाँ आ रहे थे, बस, तभी उसको मनोभूमि में एक भयंकर युद्ध छिड़ गया !" "कैसा युद्ध किसके साथ युद्ध ?" प्रभु ने मानव मन की आन्तरिक भूमिका का चित्र स्पष्ट करते हुए कहा - " राजन् ! वह साधक और कोई नहीं, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि है। जब वह ध्यानावस्था में लीन खड़े थे, तो राजर्षि के कानों में परस्पर बात करते हुए दो सैनिकों की ध्वनि टकराई कि "देखो, इस प्रसन्नचन्द्र राजा ने अपने अल्पवयस्क पुत्र के असमर्थ कन्धों पर राज्य भार डाल कर दिक्षा ग्रहन कर ली । अब पीछे से शत्रु राजा ने बालक राजा को कमजोर एवं दुर्बल समझ कर राज्य पर आक्रमण कर दिया है, भयंकर युद्ध छिड़ गया है, शत्रु सेनाएँ आगे बढ़ चुकी हैं। राजधानी सब ओर से घिर चुकी है। बस, कुछ ही समय में प्रसन्नचन्द्र राजा का पुत्र युद्ध भूमि से उलटे पाँव भाग छूटेगा या वह वहीं समाप्त हो जाएगा । प्रसन्नचन्द्र के परंपरागत राज्य और कुल का सर्वनाश अब निकट है ।" बस, इतना सुनना था कि ध्यानावस्था में खड़े प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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