Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 28
________________ मन की लड़ाई "राजन् ! तुम ठीक ही सुन रहे हो ! इसमें विसंगति जैसा कुछ महीं है। यदि वह इस समय काल-धर्म को प्राप्त हो, तो छट्ठी नरक-भूमि में जा सकता है !" 'यह कैसे ? सातवीं से छट्ठी नरक भूमि ?" "हाँ, राजन् ! अभी पाँचवीं नरक-भूमि के योग्य उसके कर्म-बन्ध हो रहे हैं !" श्रेणिक इस अनबूझ पहेली में उलझ गया ! विचित्र कुतूहल और अद्भुत आश्चर्य ! प्रभु से पुनः पूछने लगा"प्रभु ! अब –?" "अब उसके कर्म चौथी नरक-भूमि के योग्य है।" प्रश्नोत्तर की श्रृंखला आगे बढ़ती रही और कुछ ही क्षणों में तीसरी, दूसरी और प्रथम नरक - भूमि तक पहुँचते-पहुंचते, अब गति ऊपर की ओर बढ़ने लगी। इस आश्चर्यकारक उतार-चढ़ाव पर श्रेणिक का मन विस्मय विमुग्ध हो उठा था। फल-स्वरूप उसकी जिज्ञासा मुखरित होती गई-"प्रभु ! अब ?" और भगवान् की समाधान परक दिव्य-दृष्टि पापकर्मों के प्रति होने वाले उस आन्तरिक अभियान के सम्बन्ध में क्षण-क्षण की सूचना दे रही थी, उस महान् अभियान की उत्तरोत्तर शक्तिशाली चढ़ाई का हाल सुना रही थी-'श्रेणिक ! अब वह साधक देवभूमि तक पहुँच गया है। यदि इसी क्षन उसकी मृत्यु हो जाए, तो वह सौधर्म कल्प का समृद्धिशाली देव बन सकता है। उसका अभियान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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