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मन की लड़ाई
एक बार श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार करके मगधनरेश श्रेणिक ने प्रश्न किया,-"भगवान् ! आज आप के दर्शन करने के लिए आते समय मार्ग में एक महान तपस्वी के दर्शन हुए । बड़ी उग्र साधना कर रहे थे ! सूर्य को ओर भुजाएँ ऊँची फैलाए मेरु की तरह स्थिर, अचल, कायोत्सर्ग मुद्रा, ध्यान में लीन, नासाग्र दृष्टि ! मुखचन्द्र पर अद्भुत समता और अपार शान्ति झलक रही थी। कितना महान् होगा, उनका तपश्चरण ! वह उग्र तपस्वी किस उत्तम गति
को प्राप्त करेंगे ?" . "राजन ! जिस तपस्वी मुनि को तुमने देखा है, वह यदि
अभी, इसी क्षण मरण करे, तो सातवीं नरक भूमि को प्राप्त कर सकता है।"
'इतनी उग्र तपः साधना और सातवाँ नरक ! जिसका रोम-रोम शान्ति और साधना में लीन है, वह साधक मरकर सातवीं नरक-भूमि में जाएगा !' श्रेणिक को अपने कानों पर विश्वास नहीं आ रहा था। "प्रभु ! मैं यह क्या सुन रहा हूँ। मेरे देखने में और आपके कहने में बड़ी विचित्र विसंगति है । बहुत-कुछ सोचने पर भी संगति बैठ नहीं रही है !"
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