Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 29
________________ २० जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ आगे बढ़ रहा है, लो, वह और ऊँचाई पर पहुँच गया । ब्रह्म कल्प से भी आगे और आगे ही आगे भूमिकाएँ क्षण-क्षण बदल रही हैं ।" एक ओर साधक का अन्दर-ही-अन्दर पवित्र भावनात्मक आरोहण चालू है, और दूसरी ओर उसी के साथ-साथ श्रेणिक का प्रश्न, प्रभु का उत्तर । "प्रभु ! अब उस साधक की क्या स्थिति है ?" श्रेणिक ने प्रश्न किया । "अब वह कल्प और ग्रैवेयक देवलोक की भूमिका से भी ऊपर चला गया है। और अब वह सर्वार्थसिद्धि की भूमिका पर पहुँच चुका है ।"... प्रभु का उत्तर पूरा होते-होते तो आकाश में देवदुन्दुभि बज उठी । देव देवियों के वृन्द-पर-वृन्द पुष्प वर्षा करते हुए पृथ्वी पर उतरे आ रहे थे, वीतराग प्रसन्नचन्द्र केवली की जय-जयकार बोल रहे थे । श्रेणिक ने यह सब देखा, तो चकित और भ्रमित ! " प्रभु ! यह क्या हो रहा है ? कहाँ नरक, कहाँ स्वर्ग और अब कहाँ केवलज्ञान कुछ ताल-मेल बैठ ही नहीं रहा है इसमें ?" ! " राजन् ! वह मनोभूमि पर लड़े जा रहे विकल्प-युद्ध में विजय पा चुका है, उसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । ओर यह सब कैवल्य महोत्सव का उपक्रम किया जा रहा है।" "प्रभु ! इस रहस्यमयी भाषा को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि कुछ क्षण पहले जो साधक सातवीं नरकभूमि में जाने योग्य कर्म कर रहा था, वह कुछ ही क्षणों में ऊपर उठा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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