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१२ जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ वह जीवन का रस लेते हुए भी उसमें डूबते नहीं है । वह
ओ भी कर रहा है, कर्तव्य - भाव से कर रहा है । इसलिए उसका यह वर्तमान जीवन भी सुखी है-भय और शक्ति से दूर ! तथा अगला जीवन भी दिव्य एवं श्रेष्ठ है। यहाँ भी सुखी, आगे भी सुखी । इसलिए अभयकुमार के लिए देव ने कहा कि चाहे जीओ, चाहे मरो ।"
सम्राट को मन-ही-मन अपने जीवन पर ग्लानि होने लगी, और अभय की जीवन - दृष्टि के प्रति धन्यता, शुद्ध स्पर्धा ! किन्तु, अभी अन्तिम प्रश्न बाकी था। सम्राट ने उसे समझने को भी प्रश्न किया। प्रभू ने बताया-'न मरो और न जीओ ?' इसका अर्थ तो बहुत ही स्पष्ट है। काल शोकरिक का वर्तमान जीवन तो दुःख, दारिद्रय और घृणा से भरा है, साथ ही हिंसा और क्रूरता का महापापी भी है । ऐसी स्थिति में अगले जीवन में भी सुख-शान्ति और प्रकाश की आशा कैसे की जा सकती है ? अस्तु, यह जीता है तो पाप करता है, और यदि मरता है तो नरक में जाता है। अस्तु उसका न मरना अच्छा है, और न जीना।"
महाराज श्रेणिक श्रद्धावनत हो गए। उन्होंने जो समझा, प्रभु महावीर के समक्ष निवेदन किया-"प्रभु ! इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि जो विवेक की दृष्टि खुली रखकर जीता है, उसके दोनों जन्म सुखमय होते हैं।" प्रभु ने कहा.-"हाँ राजन् ! वस्तुतः यही सच्ची जीवन-दृष्टि है।" *
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