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जीवन-दृष्टि साधन प्राप्त हैं । जितने दिन यह जीवन है, तुम्हारे फूलों की सेज है। किन्तु आगे क्या है ? नरक है। जीवन में असीमित भोग दुःख के कारण होते हैं । अतः राजन्, तुम्हारे अगले जन्म में घोर दुःख के अन्ध-गर्त हैं । कांटे और शूल हैं । तुम्हारे लिए अभी जीना ही सुखकारी है, मरण नहीं ।"
इस कटु सत्य ने सम्राट का कलेजा हिला दिया, किन्तु धर्य और उत्सुकता ने सहारा दिया। वह दो क्षण रुका और फिर अगले प्रश्न को दुहराया- "प्रभु ! आप जैसे परम करुणावतार प्रभु को उसने मर जाने के लिए क्यों कहा ?"
"राजन् ! साधना के द्वारा अन्तर के राग - द्वेष रूप मल को धो लेने के बाद ही अर्हन्त बना जाता । परन्तु, अर्हन्त जीवन-शुद्धि की अन्तिम भूमिका नहीं है। मुक्त दशा ही आध्यात्मिक विकास का सर्वोत्कृष्ट शाश्वत रूप है। पूर्वबद्ध कर्मों का भोग अभी चल रहा है, मैं अभी उससे मुक्त नहीं हो सका हूं, अतः वह मेरे वर्तमान जीवन को देह का बन्धन मानता है, और मरण को मुक्ति । इसलिए उसने मुझे मर जाने को कहा । इसका मर्म है-आप सदा के लिए बन्धन से मुक्त हो जाओ।"
दो प्रश्नों का समाधान हुआ। जिज्ञासा तीसरे प्रश्न की ओर बढ़ी। प्रभु ने पहेली को खोलते हुए बताया"अभयकुमार के जीवन में भोग भी है, त्याग भी है। उसकी जीवन-दृष्टि स्पष्ट है । फूलों से रस लेनेवाले भ्रमर की तरह
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