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जैनहितैषी
हो चुका है कि जैनधर्मका महावीर स्वामीके बाद नौवीं, दशवीं
और ग्यारहवीं शताब्दियोंमें सबसे अधिक जोर रहा । जिनसेन इत्यादि बड़े नामी नामी लेखक, जैनमुनि और अमोघवर्ष इत्यादि राजा इसी कालमें हुए हैं । मथुराके जैनलेखोंसे पता चलता है कि स्त्रीसमाजकी रुचि धर्मकी ओर अधिक थी। परिश्रम करनेसे ऐसी ही अनेक बातोंका पता लग सकता है और लगा है।
-संशोधक ।
तपका रहस्य। (जैनहितेच्छुके एक लेखके एक अंशका अनुवाद ।)
यह सब जानते हैं कि — दान ' और 'शील'
के पालनेवाले मनुष्यके स्थूल और सूक्ष्म दोनों
शरीर निर्मल रहते हैं। तथापि दो कारण ऐसे हैं
है। जिनसे इन दोनों ही शरीरोंमें मलोंके या अनिष्ट तत्त्वोंके प्रवेश होनेकी संभावना बनी रहती है। एक तो मनुष्य मात्रसे भूल होती है, प्रमाद होता है और दूसरे भूल या प्रमादसे, जानकर या बिना जाने, शारीरिक या मानसिक अतिक्रमण या व्यतिक्रमण या अनाचार हो जानेका संभव रहता है। इस प्रकार ज्ञात या अज्ञात अवस्थामें जो शारीरिक या मानसिक दोष लग जाते हैं यदि उनके भस्म करनेका उपाय तत्काल न किया जाय तो वे धीरे धीरे बढ़ते जाते हैं और भयंकर रूप धारण करके बहुत बड़ी हानि पहुंचाते हैं । जैसे, शीलसम्बन्धी बारह व्रतोंमें जो
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