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जैनहितैषी -
साहबको दो चार सुना दूँ; परन्तु समय समय पर मैं उनके सामने जिस मनुष्यत्वका परिचय दे चुका था उसकी याद आ जाने से इस समय मेरा मुँह उत्तर देनेको नहीं खुल सका। उस दिन ऐसा मालूम हुआ कि दारोगाकी मित्रताने चाबुक मारकर मेरा अपमान किया है !
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हृदय चाहे जितना व्यथित हो— चाहे जितना कष्ट आकर पड़े; परन्तु कर्मचक्र चलता ही रहता है— संसारके काम काज बन्द नहीं होते । सदाकी नाई भूखके लिए आहार, पहरनेको कपड़े, और तो क्या चूल्हे के लिए ईंधन और जूतोंके लिए फीता तक पूरे उद्योगके साथ संग्रह किये बिना काम नहीं चलता ।
यदि कभी कामकाजसे फुरसत पाकर मैं घर में अकेला आकर बैठता था, तो बीचबीचमें वही करुणकण्ठका प्रश्न कानके पास आकर ध्वनित होने लगता था—“ पिताजी, वह बूढ़ा तुम्हारे पैरों पड़कर क्यों रोता था? " और उस समय मेरे हृदय में शूलकी सी वेदना होने लगती थी ।
मैंने दरिद्र हरनाथके जीर्ण घरकी मरम्मत अपने खर्च से करा दी | एक दुधारू गाय उसे दे दी और उसकी जो जमीन महाजनके यहाँ गिरवी रखी गई थी उसका भी उद्धार करा दिया ।
मैं कन्याशोककी दु:सह वेदनासे कभी कभी रात रातभर करवटें बदलता पड़ा रहता था — घडीभरको भी नींद न आती थी । उस समय सोचता था कि यद्यपि मेरी कोमलहृदया कन्या संसारलीलाको शेष करके चली गई है तो भी उसे अपने बाप के निष्ठुर दुष्कर्मो के कारण
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