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जैनहितैषी
गई है कि पट्टणमें मेरी भेट हिम्मतविजयजीसे हुई। ये जैनशिल्पशास्त्रके बहुत अच्छे ज्ञाता हैं । जैनमन्दिरोंके ढाँचे, उनके भाग आदिका हाल उन्हें खूब मालूम है । बहुत से भागोंके. उन्हेंखास खास नाम मालूम हैं। उनके पास एक पुस्तकालय है जिसमें सैकड़ों संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थ केवल मन्दिर-निर्माणविद्याके ही विषयके हैं । ( खेद है कि ये महाशय न तो उन ग्रन्थोंको ही प्रकाशित करते हैं और न अपने ज्ञानको ही। हमारे देश-वासियोंकी यही तो विशेषता है।)
-संशोधक।
४ सर्वसाधारणजनोंमें शिक्षाका प्रचार । यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैनसमाजका भी भारतवर्षके-अपने प्यारे देशके साथ वही सम्बन्ध है जो दूसरे समाजोंका है । अर्थात् हम केवल जैन ही नहीं हैं, भारतवासी भी हैं । इसलिए जिस तरह हमारा यह कर्तव्य है कि अपने समाजमें शिक्षाका प्रचार करें, उसी तरह यह भी है कि अपने देशमें—देशकें तमाम मनुप्योंमें भी शिक्षाका विस्तार करें । यह बात हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जबतक अन्य सभ्य देशोंकी भाँति हमारे यहाँ भी शिक्षाका प्रचार बहुलताके साथ न होगा तबतक हमारा देश जीवनकी दौड़में दूसरोंकी बराबरी कदापि न कर सकेगा । हम यह नहीं चाहते हैं कि अपने समाजमें शिक्षाप्रचारके लिए हम जो उद्योग कर रहे हैं उसमें किसी तरह शिथिलता आ जावे; नहीं, उसे ते
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