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सहयोगियों के विचार ।
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कि केवल कर्माधीन हो रहे हैं । यदि भगवान के आगे टोकरी भर फूल या सेरभस् चावल चढ़ाये गये अथवा किसीने ५० रुपया देकर भक्तामर विधान करवाया, तो वह देवके सम्मुख अर्पण किया हुआ द्रव्य निर्माल्य हो गया, इसमें कोई सन्देह नहीं; परन्तु इस पर एक आदमी कहता है कि उस निर्माल्यको खाना नहीं चाहिए, दूसरा कहता है कि खावें नहीं तो क्या करें ? और तीसरा कहता है कि क्यों ? खाने में हानि क्या है ? परन्तु हमारी समझमें इतनी चर्चा करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि क्रियाकाण्डका जो अतिरेक हो गया है उसे धीरे धीरे कम करके ज्ञानका मार्ग विस्तृत किया जाय । इससे स्वयं ही निर्माल्य द्रव्यकी उलझन सुलझ जायगी । शास्त्र भी क्या हैं ? अपने अपने समयको सामाजिक परिस्थितिके अनुसार उनकी रचना की जाती है । हमारे बड़े बड़े चैत्यालयों में जो प्राचीन कालकी मूर्तियाँ हैं ज़रा उनकी ओर तो अच्छी तरह से देखो । वे तुमसे यह. नहीं कह रही हैं " हमारे आगे पूजन सामग्री की राशि लगाया करो और निर्माल्यद्रव्यसम्बन्धी चर्चामें सिरपच्ची किया करो। " वे यह कहती हैं कि भक्तजनो, हम सरीखे वीतराग बननेका प्रयत्न करो । रागी बनकर पूजनसामग्रीके ढेर लगानेको ही सब कुछ मत समझ बैठो । पूजनसामग्री यदि न हो. तो हानि नहीं; परन्तु रागरहित हुए बिना तुम्हें हम अपनी बराबरीके नहीं समझ सकेंगी । रागरहित होनेके लिए अपने में उत्कृष्ट दशधर्म पालन करने के योग्य शक्ति संचय करो। " गरज यह कि क्रियाकाण्डको अधिक महत्त्व न देकर जिन उपायोंसे ज्ञानका और सद्गुणोंका प्रसार अधिकाधिक हो उनको काममें लाओ इससे निर्माल्यद्रव्यचर्चाका फैसला स्वयं ही हो जायगा, नहीं तो इस व्यर्थवादकी समाप्ति होना असंभव है । प्रगति आणि जिनविजय ता. ८ नवम्बर १९१४ । गोत्रीय चर्चा |
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गोत्रों की उत्पत्ति एक गाँव में रहनेके कारण, एक ऋषिका उपदेश मानने के कारण अथवा ऐसे ही और कारणोंसे हुई है । जैसे पाटन के रहनेवाले पाटनी, गर्गऋषिके अनुयायी गार्गीय, और सोने लोहेके व्यापारी सोनी लहाड़ा आदि इससे यह नहीं सिद्ध होता कि एक गोत्रके सब लोग एक ही कुटुम्बके हैं और इस लिए उनमें पारस्परिक विवाहसम्बन्ध नहीं होनेके विषय में कोई सबल कारण नहीं है । क्या एक गाँव के रहनेवाले लड़के-लड़कियों का विवाह नहीं
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