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सहयोगियों के विचार।
ऐसा मालूम होता है कि ब्राह्मणों और जैनोंके बीच जो पारस्परिक स्पर्धा बढ़ रही थी उसके कारण बहुतसे ब्राह्मण विद्वानोंने जैनोंको और बहुतसे जैनाचार्योंने ब्राह्मणोंको अपने अपने ग्रन्थों में अपमानित करनेके प्रयत्न किये हैं। यह गर्भसंक्रमणकी कथा भी उन्ही प्रयत्नोंमेंका एक उदाहरण जान पड़ता है। इससे यह सिद्ध किया गया है कि ब्राह्मणकुल महापुरुषोंके जन्म लेनेके योग्य नहीं है। इस कथाका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि महावीर पहले ब्राह्मण और पीछे क्षत्रिय बने, अर्थात् पहले ब्रह्मचर्यकी रक्षापूर्वक शक्तिशाली विचारक (Thinker) बने, पूर्व भवोंमें धीरे धीरे विचार बलको बढ़ाया-ज्ञानयोगी बने और फिर क्षत्रिय अथवा कर्मयोगी-संसारके हितके लिए स्वार्थत्याग करनेचाले वीर बने।
बालक महावीरके पालन पोषणके लिए पाँच प्रवीण धायें रक्खी गई थीं और उनके द्वारा उन्हें बचपनसे वीररसके का योंका शौक़ लगाया गया था। दिगम्बरोंकी मानताके अनुसार उन्होंने आठवें वर्ष श्रावकके बारह व्रत अंगीकार किये और 'जगत्के उद्धारके लिए दीक्षा लेनेके पहले उद्धारकी योजना हृदयंगत करनेका प्रारंभ इतनी ही उम्रसे कर दिया । अभिप्राय यह कि वे बालब्रह्मचारी रहे । श्वेताम्बरी कहते हैं कि उन्होंने ३२ वर्षकी अवस्था तक इन्द्रियोंके विषय भोगेब्याह किया, पिता बने और उत्तम प्रकारका गृहवास ( जलकमलवत् ) किस प्रकारसे किया जाता है इसका एक उदाहरण वे जगतके समक्ष उपस्थित कर गये। जब दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की तब मातापिताको दुःख हुआ, इससे वे उनके स्वर्गवासतक गृहस्थाश्रममें रहे । २८ वें वर्ष दीक्षाकी तैयारी की गई किन्तु बड़े भाईने रोक दिया। तब दो वर्ष तक और भी गृहस्थाश्रममें ही ध्यान तप आदि करते हुए रहे । अन्तिम वर्षमें श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार करोड़ों रुपयोंका दान दिया। महावीर भगवानका दान और दीक्षामें विलम्ब ये दो बातें बहुत विचारणीय हैं। दान, शील, तप और भावना इन चार मागोंमेंसे पहला मार्ग सबसे सहज है। अंगुलियोंके निर्जीव नखोंके काट डालनेके समान ही 'दान' करना सहज है। कच्चे नखके काटनेके समान ' शील ' पालना है । अंगुली काटनेके समान 'सप' है और सारे शरीरपरसे स्वत्व उठाकर आत्माको उसके प्रेक्षकके समान · तटस्थ बना देना 'भावना' है । यह सबसे कठिन है। इन चारोंका क्रमिक रहस्य
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