Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 124
________________ १२२ जैनहितैषीwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww mmmmmmmmwwwwwwwwwwwm हे जीवदया, आज यह तेरा मुख प्रसन्न क्यों हो उठा है ? तेरे अधर पर यह मुसकुराहट और गालों पर ललाई क्यों झलक रही है ? हे बुद्धिदेवी, आज तू. आनन्दके मारे नृत्य क्यों कर रही है ? सदासे तेरे पैरोंमें जो गुलामीकी बेड़ी पड़ी हुई थी, वह कैसे टूट गई ? भाई विवेक, आज तू आकाशमें उड़ाने क्यों भर रहा है ? ये सुन्दर पंखे तुझे फिरसे किसने दे दिये ? चिरकालकी निद्रासे आज तू जाग कैसे उठा ? क्या तेरे कानोंमें किसीने शंख फूंक दिया है ? प्यारी समता, आज तेरे शरीर पर ये हर्षके अंकुर क्यों उठ रहे हैं ? इतना सुख तुझे किस कारण हो रहा है ? हे अनाथ पशुओ और दीन जन्तुओ, तुम इस तरह आशाके नेत्रोंसे किसकी ओर देख रहे हो ? तुम्हारे दुःखोंको दूर करनेवाला कौन आ गया ? भला बतलाओ तो सही कि तुम्हारा मूकरोदन किसके कानोंतक पहुँच गया और तुम्हारी गूंगी पुकार सुनकर किसका हृदय पिघल गया ? अरे भाई, तुम यह क्या पूछे रहे हो ? जिस तरह तुम्हें तुम्हारी बुद्धिने छोड़ दिया है उस तरह क्या कानोंने भी छोड़ दिया ? सुनते नहीं हो कि आज सम्पूर्ण अनाथोंका संरक्षक और दुर्बलोंका सहायक प्रभु स्वर्गसुखोंको छोड़कर पददलितों-पतितोंको ऊपर उठानेके लिए, भयभीतोंको अभय देनेके लिए, जीवमात्रके साथ मित्रता रखना सिखलानेके लिए और अखिल प्राणियोंको जीवनदान देनेके लिए नीचे उतरा है । वसन्त ऋतुके समान उससे सारी जडचेतन--सृष्टि प्रफुल्लित हो जायगी । सुनो, उसके ये जन्ममहोत्सवके बाजोंकी धुनि सुनाई दे रही है और देखो, यह अयोध्यापुरी आनन्दसे किस तरह नृत्य कर रही है । समस्त जनोंका प्यारा वसन्त अपने आगमनसे सबको सुखी कर रहा था । सृष्टिसुन्दरी आनन्दमें तल्लीन हो रही थी। उसकी गोदीमें ऐसा कोई न था जो हीन दीन हो-सभी प्रसन्न थे । वृक्ष और लताये पत्तों और फूलोंसे लद रही थीं। वायु भी फूलोंकी सुगन्धिसे भरा हुआ मन्द मन्द. बह रहा था और इन सबको ही नीचा दिखलानेके लिए मानों निसर्ग-गायकोंके नायक पिव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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