Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 117
________________ सहयोगियोंके विचार । ११५ दे देना—यही स्याद्वादशैलीके उपदेशकका कर्तव्य है । भगवानने दशवैकालिक सूत्रमें सिखलाया है कि खाते-पीते, चलते, काम करते, सोते हुए, हरसमय यत्नाचार पालो अर्थात् “ Work with attentiveness or bala. nced mind " प्रत्येक कार्यको चित्तकी एकाग्रता पूर्वक समतोलवृत्तिपूर्वक करो । कार्यकी सफलताके लिए इससे अच्छा नियम कोई भी मानसतत्त्वज्ञ नहीं बतला सकता । उन्होंने पवित्र और उच्चजीवनको पहली सीढ़ी न्यायोपार्जित द्रव्य प्राप्त करनेकी शक्तिको बतलाया है और इस शक्तिसे युक्त जीवको ‘मार्गानुसारी' कहा है । इसके आगे ' श्रावक'वर्ग बतलाया है जिसे बारह व्रत पालन करना पड़ते हैं और उससे अधिक उत्क्रान्त-उन्नत हुए लोगोंके लिए सम्पूर्ण त्यागवाला 'साधु-आश्रम' बतलाया है। देखिए, कैसी सुकर स्वाभाविक और प्राक्टिकल योजना है। श्रावकके बारह व्रतोंमें सादा, मितव्ययी और संयमी जीवन व्यतीत करनेकी आज्ञा दी है । एक व्रतमें स्वदेशरक्षाका गुप्त मंत्र भी समाया हुआ है, एक व्रतमें सबसे बन्धुत्व रखनेकी आज्ञा है, एक व्रतमें ब्रह्मचर्यपालन ( स्वस्त्रीसन्तोष ) का नियम है जो शरीरबलकी रक्षा करता है, एक व्रत बालविवाह, वृद्धविवाह और पुनर्विवाहके लिए खड़े होनेको स्थान नहीं देता है, एक व्रत जिससे आर्थिक, आत्मिकं या राष्ट्रीय हित न होता हो ऐसे किसी भी काममें, तर्क वितर्कमें, अपध्यानमें, चिन्ता उद्वेग और शोकमें, समय और शरीरबलके खोनेका निषेध करता है और एक व्रत आत्मामें स्थिर रहनेका अभ्यास डालनेके लिए कहता है । इन सब व्रतोंका पालन करनेवाला श्रावक अपनी उत्क्रान्ति और समाज तथा देशकी सेवा बहुत अच्छी तरह कर सकता है। जब भगवान्की आयुमें ७ दिन शेष थे तब उन्होंने अपने समीप उपस्थित हुए बड़े भारी जनसमूहके सामने लगातार ६ दिन तक उपदेशकी अखण्ड. धारा बहाई और सातवें दिन अपने मुख्य शिष्य गौतम ऋषिको जान बूझकर आज्ञा दी कि तुम समीपके गाँवोंमें धर्मप्रचारके लिए जाओ । जब महावीर. का मोक्ष हो गया, तब गौतम ऋषि लौटकर आये । उन्हें गुरुवियोगसे शोक होने लगा । पीछे उन्हें विचार हुआ कि "अहो मेरी यह कितनी बड़ी भूल है ! भला, महावीर भगवानको ज्ञान और मोक्ष किसने दिया था ? मेरा मोक्ष भी मेरे ही हाथमें है। फिर उनके लिए व्यर्थ ही क्यों अशान्ति भोगूं ? " इस पौरुष या मर्दानगीसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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