Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 108
________________ १०६ जैनहितैषी - और सारे संसार में दया, अहिंसा, शान्ति, उदारता, वीरता, शालीनता आदिकी प्रकाशमान ज्योति जगमगे । हे अनन्त शक्तिशालिन्, आप हमें कुछ शक्तियोंका दान दीजिए, जिससे हम अपनी शताब्दियोंकी निर्बलता और कायरताको नष्टकर बलवान् बनें । हम अपने देश और जातिकी सेवामें अपने जीवनका भोग दे सकने में समर्थ हों । हमारा जीवन - प्रवाह स्वार्थकी ओर न जाकर परार्थकी ओर जाए। हम विषय-वासना के गुलाम न बनकर जयी, साहसी और कर्तव्यशील बनें । हे दयासागर, आप हमें दयाकी भी कुछ भीख दीजिए, जिससे हम पहले अपने हृदयमें दयाका सोता बहावें और फिर उसे अनन्त हृदयरूपी क्यारियों में लेजाकर सारे संसार में दयादेवीका पवित्र साम्राज्य स्थापित कर दें । यद्यपि आपने दया करना हमारे जीवनका मुख्य लक्ष्य बताया था, पर अज्ञानसे उसे हम भूलकर निर्दयता के उपासक बन गये- दूसरों के दुःखों पर सहानुभूति बतला - कर उन्हें दूर करना हमने सर्वथा छोड़ दिया । इसलिए हे नाथ, हमारे लिए उक्त गुणोंकी बड़ी ज़रूरत है | आप हमारी इन जरूरतों को पूरी कीजिए ( सभापतिका व्याख्यान ) - सत्यवादी अंक १० । निर्माल्य द्रव्य | जैनमित्रमें बहुत समय से निर्माल्य द्रव्यकी चर्चा चल रही है । नहीं कहा जा सकता कि आगे यह चर्चा और कब तक चलती रहेगी; परन्तु ऐसा मालूम होता है कि आगे अब इस विषयसे पाठक ऊब जावेंगे । हमारे पिछले समय के आचार्योंने क्रियाकांडको इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया था इस विषय में हम आगे विस्तारसहित लिखना चाहते हैं । इस समय हम इतना ही कहते हैं कि यदि क्रियाकाण्डको एक ओर रखकर – गौण मानकर ज्ञानकाण्डको अधिक महत्त्व दिया जाय और उसके अनुसार समाजका भी रुख बदला जाय तो फिर निर्माल्य द्रव्यकी इतनी चर्चा करनेकी अवश्यकता ही न रहे। पंचकल्याण पूजा, ३६० विधान, अष्टद्रव्यपूजा आदि सब मिलकर सम्यग्दर्शन के ( ? ) एक अंग हैं वास्तवमें जैनधर्मके नियमानुसार क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि सद्गुणोंको धारण करके संसार में जिस शान्तिसुख की प्राप्ति करना चाहिए उसको एक ओर रखकर अथवा उन गुणोंकी प्राप्ति करनेके लिए प्रयत्न करना छोड़कर हमारे भाई मालूम होता है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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