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क्या जैनजति जीवित रह सकती है ?
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समाजके लिए कार्य करनेका साहस न होसकेगा और बिना ऐसे आत्मत्यागियोंके असम्भव है कि जाति समयकी आवश्यकताओंको पूरी कर सके । निःसदेह वह सबसे पीछे रहकर नाशको प्राप्त होजायगी।।
क्या जैनसमाजकी ऐसी दशा है ? क्या जनजाति अपने लिए सर्वस्व त्याग करनेवालोंकी सहायता नहीं करती ? क्या उनके कष्ट निवारण करनेका प्रयत्न नहीं करती ? इनका उत्तर केवल एक बातसे दिया जा सकता है कि पं० अर्जुनलालजी सेठी आज प्रायः १० माससे जेलमें सड़ाये जा रहे हैं । किस अपराध पर ? किस कुसूर पर ? परमात्मा जाने ! क्यों कि आजतक न कोई अभियोग चलाया गया और न कहीं प्रमाणित हुआ कि उन्होंने अमुक अपराध किया है। ऐसी दशा होने पर भी जैनसमाजने क्या किया? क्या सरकारतक अपनी पुकार सुनाई ? क्या श्रीमान् लार्ड हार्डिजके कानोंतक बात पहुँचाई ? क्या न्यायशीला गवर्नमेंटका ध्यान इस ओर अकर्षित कराया ? क्या इसके लिए सभायें की और तार भेजे ? क्या किसी प्रकारका अन्दोलन किया ? बड़े दुःखके साथ कहना पड़ता है कि इनमेंसे कुछ भी नहीं किया। क्यों? कुछ लोग कहते हैं कि यह सब 'सिडीशन' (राजद्रोह) समझा जाता है और सरकार अप्रसन्न होती है, इस कारण चुप रहना ही ठीक था। यह ठीक है कि आजकल मामूली सी बातें भी सिडीशन समझ ली जाती हैं; परन्तु न्यायके लिए प्रार्थना करना, अत्याचारसे बचानेकी पुकार करना और निर्दोषीकी सहायताके लिए सरकार तथा जनताको उत्तेजित करना भी यदि सिडीशन समझा जा सके तो कहना होगा कि इस बीसवीं शताब्दिमें भी अभी न्यायप्रियता नहीं आई। जब एक छोटे राज्यको पड़ौसी जर्मनीके अत्याचारसे बचानेके लिए इंग्लेंड अब्जों रुपये खर्च कर सकता है और लाखों मनुष्योंकी क्षति भी सहनेके लिए तैयार है, तब क्या वह न्यायप्रिय राज्य हमारे क्रन्दनको सिडीशन समझेगा ? नहीं, कदापि नहीं । यह केवल बहाना मात्र है और ऐसा बहाना यही सूचित करता है कि सहानुभूति हमारे यहाँसे हवा हो गई। जब जेलके दुःखोंसे भी हृदय नहीं पिघला, जब स्त्री-पुत्रादिकोंका वियोगदृश्य भी कठोर हृदयोंको न हिला सका, जब जिनदर्शन करनेकी मनाई भी धार्मिकोंको दुःखित न कर सकी, जब ८ दिन निराहार रहने पर भी जातिको रुलाई न आई, जब निरपराध ५ वर्षकी कैदकी आज्ञाने भी आँखें न खोली तो कहना होगा कि यद्यपि दयट
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