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जैनहितैषी
ठीक इसही प्रकार जातिके सुसंगठित रहने के लिए इस सहानुभूतिकी अत्यन्त आवश्यकता है । यह ही वह शक्ति है जिसके भरोसे प्रत्येक मनुष्य अपनी जातिके लिए कुछ काम कर सकता है । इसहीके सहारे मनुष्य जातिके लिए. अपने स्वार्थका त्याग कर सकता है और यही उसे अपने कार्यसे विचलित होनेसे रोक रखती है। वह जानता है कि यदि उस पर कुछ कठिनाई पडेगी तो समाज उसको दूर करनेका प्रयत्न करेगा। उसे विश्वास है कि अवसर आने पर जाति उसे अकेला नहीं छोड़ देगी। उसे इसका भी भरोसा है कि यदि वह जातिको अपना जीवन समर्पण कर चुका है तो जाति भी उसके जीवनको बहुमूल्य समझती है और इस लिए वह उसे कदापि दुःख नहीं पाने देगी। वह जानता है. कि उस पर कष्ट आने पर उसके बालबच्चों की रक्षा करना जाति अपना परम कर्तव्य समझेगी । इसी विश्वास पर निश्चिन्त होकर वह जातिकी सेवा करता है, अपने स्त्री पुत्रादिकोंकी कुछ भी परवा न कर, अपने स्वास्थ्यकी भी उपेक्षा कर. वह कर्तव्यका पालन करता है और तब ही जाति सुसंगठित रह सकती है। तब है? जातिको शिक्षाप्रचार, सामाजिक सुधार इत्यादि आवश्यक कार्योंके लिए प्रयत्न करनेवाला एक सेवक मिलता है और वह जाति कालसे युद्ध करनेमें सफल हो सकती है। ___ अब मान लीजिए कि किसी समाजमें इस ही शक्तिका अस्तित्व न हो, सेवकों में और जातिमें सहानुभूति न हो, समय पड़ने पर जाति अपने उद्धारकका साथ न दे, कष्टमें उसे अकेला छोड़ दे और उसकी असमर्थतामें उसके स्त्री पुत्रोंका पालन न करे तो उस महान् आत्माका तो अवश्य कुछ न बिगड़ेगा; परन्तु अन्य जो कोई जातिसेवा करनेका विचार करता हो और यह चाहता हो कि स्वार्थका त्यागकरके समाजसुधारके लिए कुछ काम करना चाहिए, कहिए उस पर इस सहानुभूतिके अभावका क्या प्रभाव पड़ेगा? माना कि यदि वह वास्तवम उच्च आत्मा है, यदि वास्तवमें उसकी इच्छा प्रबल है तो वह कदापि इससे पीछे न हटेगा; परन्तु साधारणतःहमारे दुर्भाग्यसे ऐसी उच्च आत्मायें अधिक नहीं होता और जो आत्मायें बहुत उन्नत न होकर भी समाजसेवा करनेको उद्यत होती हैं उनके लिए यह नितान्त कठिन है कि वे अपने आपको बिना सहायता
और सहानुभतिके कष्टमें डाल दें। और यदि डाल भी दिया तो जातिको विशेष लाभ न होगा, वरन् होनहार नवयुवकोंके सामने दु:ख और कठिनाईयोंका चित्रः आवश्यकतासे भी अधिक सजीव भावसे खिंच जायगा और इसकारण उनको कभी
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