Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ जैनहितैषी - थी। जो लोग वर्णभेदके विरुद्ध हैं उनके वे सिद्धान्त नहीं हैं जो व्याख्यानमें बतलाये गये हैं । एकता और सार्वजनिक कामोंमें योग, इन दो विषयों पर बहुत ही उदारतापूर्वक चर्चा की गई है । इससे जान पड़ता है कि सभापति महाशय सार्वजनिक कामों से बहुत प्रेम रखते हैं । एकतामें उन्होंने दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरहपंथ, वीसपंथ आदिके झगड़ोंको भूलकर सम्मिलित शक्तिसे काम करनेका उपदेश दिया है । ७४ स्वागतकारिणी सभा के सभापति श्रीयुत बाबू माणिकचन्द्रजी बी. ए. एल एल. बी. वकील खंडवा बनाये गये थे । विद्यार्थी-जीवनमें आप जैनसमाजके कार्योंमें बहुत योग दिया करते थे । भारतजैनहामण्डलकी आप जीजानसे सेवा करते थे; परन्तु इधर कई वर्षों से आपने इस ओर से बिलकुल हाथ खींच लिया था । हर्षका विषय है कि मालवा प्रान्तिकसभा अब उन्हें फिर इस ओर खींच लाई है और हमें आशा दिला रही है कि बाबू माणिकचन्दजी जैनसमाजके कार्यों में पहलेहीके समान फिर योग देने लगेंगे । आपका व्याख्यान पिछले अंकमें प्रकाशित हो चुका है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह आपकी योग्यताके सर्वथा अनुरूप हुआ है । जैनसभाओं में इस प्रकारके व्याख्यान सुननेके अवसर बहुत कम प्राप्त होते हैं और इसका कारण यह है कि बहुत कम सभायें ऐसी हैं जो कभी भूल चूककर ऐसे योग्य पुरुषोंको सभापति चुन लिया करती हैं । इस तरहकी एक भूल बम्बई प्रान्तिकसभाने बाबू अजितप्रसादजीका चुनाव करके 1 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144