________________
३२
जैनहितैषी
बाह्य तपके विषयमें जिन लोगोंके भ्रमपूर्ण खयाल हैं उनके लिए श्रीमुनिचंद्रसूरिका निम्नलिखित श्लोक बहुत ही उपयोगी होगाः
कायो न केवलमयं परितापनीयो, मिष्टै रसैर्बहुविधैर्न च लालनीयः। चित्तेन्द्रियानि न चरन्ति यथोत्पथेन,
वश्यानि येन च तदाचरितं जिनानाम् ।। अर्थात्-इस शरीरको केवल कष्ट ही पहुँचे, ऐसा तप नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार दूसरी ओर विविध प्रकारके मधुर रसों द्वारा इसका केवल लालन पालन ही न करना चाहिए । ( तब क्या करना चाहिए ? ) चित्त और इन्द्रियाँ जिससे उन्मार्गमें न जावें और अपने वशमें रहें, ऐसा श्रीजिनेश्वर भगवान्का आचरित 'तप' करना चाहिए।
उपवास और आरामका रहस्य । अमेरिकासे प्रगट होनेवाले ‘दी एनल्स आफ साइकिकल सायन्स' नामक एक मानसशास्त्रसम्बन्धी पत्रमें दो वर्ष हुए एक मनन करने योग्य लेख निकला था । उसका सारांश नीचे दिया जाता है:___“ यदि गई हुई शक्ति खुराकसे फिर प्राप्त होती तो हम कसरतशालामें न जाकर पहले भोजनशालामें जाते; किन्तु इसतरह नहीं होता । हम जब थके हुए होते हैं, तब भोजनालयमें नहीं किन्तु शयनालयमें जाते हैं जिससे कि गत शक्तिको पुनः प्राप्त कर सकें। हमने चाहे कितना ही भोजन किया हो, चाहे कितनी ही मेहनत या कसरत भोजन पचानेके लिए की हो, तो भी एक समय अवश्य ऐसा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org