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जिनाचार्यका निर्वाण ।
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जिनदेव के भी मन्दिर में नहीं जाते, अर्थात् दोनोंके मत-वाद को हिन्दू तसलीम नहीं करते । पर दोनों आचार्यों को हिन्दू जातीय महावीर, जातीय महात्मा और जातीय सभ्यता के स्तम्भ मानते हैं । अपने समय में हिन्दूजाति की दया ने सिद्धार्थ और नाटपुत्र के रूप में जन्म लिया था, जाति की जातिने मानों उन्हीं की आत्माके अन्तर्गत पैठ अपना निश्चय, दयानिश्चय प्रकट किया।
जो तितिक्षा बाबू हरिश्चन्द्र में थी वही हमारे पूर्वजों में थी। पूर्वजों ने भगवान बुद्ध को परमात्मा का अवतार मान लिया जैसे बाबू हरिश्चन्द्र ने महावीर और उनके पहलेके तीर्थकर पार्श्वनाथ को अवतार कहा । तब. क्या अचरज है कि पूजाह अर्हन्त महावीर की स्मृति में हिन्दू जातिने एक महोत्सव चलाया ?
जैन को नास्तिक भाखै कौन। परम धरम जो दया आहिंसा सोई आचरत जौन ॥ .. सत्कर्मन को फल नित मानत अति विवेक के भौन॥ तिन के मताहिं विरुद्ध कहत जो महा मूढ है तौन ॥
(हरिश्चन्द्र) ( पाटलिपुत्रसे उद्धृत)
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