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तपका रहस्य ।
शरीरका कचग निकालनेके लिए अथवा खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए जिस भाँति बाह्य तप ' उपयोगी है उसही भाँति सूक्ष्म शरीरके ( तैनम और कार्माण शरीरोंके ) लगे हुए मलको दूर कर उन शरीगंको निर्मल और विशेष उपयोगी बनानेके लिए । अभ्यन्तर तप की आवश्यकता है । इस प्रकारके तपको जैन-फिलासफगने प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग इन छ: भागाम विभक्त कर दिया है । (, मान ला कि मैंने किसी मज्जनपुरुपके सम्बन्धमें बुरी बात फैलाई है । अर्थात् उसकी निन्दा कर उसको लोगोंकी दृष्टिसे गिरा दिया है । अब यदि में अपनी भल देख सकूँ मेरा यह कृत्य हत्याक समान है ऐसा समझ सकूँ. तो उसके लिए मेरे मनमें बहुत दम्ब या पश्चात्ताप उत्पन्न होगा और मेरा मानसिक सूक्ष्म शरीर पश्चात्तापकी मम अग्निमें जलकर शुद्ध होगा । इस शुद्धताका विश्वास तव ही हो सकता है कि जब शुद्धिकरणकी क्रिया करने के बाद में स्वयं अगट रूपमे उम मनप्यके वारेमें लोगोंको वास्तविक बात बताऊँ और उस मनुप्यमे सच्चे अन्तःकरणके साथ क्षमा माँगें। इतना ही नहीं बल्कि समय आने पर उस मनुप्यकी सेवा करनेमे या उपकी कीर्ति फैलानेमे भी बाज न आऊँ । इसका नाम 'प्रायश्चित्त तप' है । यदि प्रायश्चित्त नियत मंत्रोच्चारण करनेणे. या नियत दंड न्टेनमे हो जाता, तो फिर हत्यारों और व्यभिचारियों को नको जानेका लेशमात्र भी डर नहीं रहता । अपनेसे बड़े ज्ञानी या गुणी के सामने किये हुए पापोंका स्वरूप प्रकाश करनसे
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