Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 12
________________ आदि इस युगके लिये कैसे होना चाहिये इसका विस्तृत विवेचन किया गया है । अगर कोई सज्जन उसके प्रकाशन के लिये पूरी या आंशिक सहायता देंगे तो वह भाग भी शीघ्र प्रकाशित किया जा सकेगा । 1 अन्त में मैं जैनसमाज से यही कहना चाहता हूं कि आज मैं पूर्ण सर्वधर्मसमभावी और सर्वजातिसमभावी हूं इसलिये जैनसमाज का सदस्य नहीं हूं पर जैनधर्म पर या उसके संस्थापक म. महावीर पर मेरी भक्ति कुछ कम न समझें । जैसे अनन्त तीर्थंकरों में बटकर भी जैनियों की महावीर - भक्ति कम नहीं होती उसी प्रकार राम कृष्ण बुद्ध ईसा मुहम्मद जरथुस्त आदि महात्माओं में बटकर भी मेरी महावीर-भक्ति कम नहीं है । क्योंकि न तो इन सब महात्माओं में मुझे कुछ विरोध मालूम होता है न परायापन | 1 म. महावीर का अनुचर बनने की इच्छा रखने पर भी मैंने जैनशास्त्री की आलोचना की है, सर्वज्ञता के उस असंभव रूप का खण्डन किया गया है जो म. महावीर की महत्ता के लिये कल्पित किया गया था । यह सिर्फ इसलिये किया है कि जैनधर्म अन्ध श्रद्धालुओं का धर्म न रह जाय, बुद्धि विकास में वह बाधा न डाले सत्यसे विमुख होकर वह अधर्म न बन जाय और म. महावीर सरीखी प्रातःस्मरणीय दिव्य विभूति अन्धश्रद्धामें लुप्त न हो जाय । आज का जैनसमाज मेरे मनोभावों को समझे या न समझे पर मुझे विश्वास है कि भविष्य का जैनसमाज मेरे मनोभाव को समझेगा वह मुझे शाबासी दे या न दे पर सेवक ज़रूर मानेगा, निंदक या शत्रु कदापि न मानेगा । जीवनमें इस आशा के अनुरूप कुछ देखें या न देखूँ पर इसी आशा के साथ मरूंगा यह निश्चय है । सत्याश्रम वर्धा ता. १ जून १९४० - दरबारीलाल सत्यभक्त

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