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इसी मोह के कारण मैंने 'जैनधर्म का मर्म' शीर्षक लेखमाला लिखी थी । इस खोज के कार्य में भगवान सत्य की ऐमी झाँकी देखने को मिली कि मैं समझने लगा कि जैनधर्म ही नहीं संसारके प्रायः सभी धर्म वैज्ञानिक और हितकारी हैं । इस प्रकार समभाव के आने पर मेरे जीवन की कायापलट हो गः, सत्यसमाज की स्थापना हुई इसका श्रेय अधिकांश में जैनधर्म को दिया जा सकता है मैंने उसके अनेकान्त को सर्वधर्म समभावके रूपमें समझकर अपने को कृत्यकृत्य माना।
इस विशाल मीमांसा के कारण जैन-समाज ने मुझे जैनधर्म का निंदक समझा, मेरा विरोध और बहिष्कार किया, उपेक्षा भी की इससे मुझे कुछ कष्ट तो महना पड़ा, आर्थिक हानि भी काफ़ी कही जा सकती है पर सत्यपथ में आगे बढ़ने का श्रेय इसे कुछ कम नहीं दिया जा सकता । खेद इतना ही है कि जन-समाज के इनेगिने लोगों को छोड़कर किसीने मेरे दृष्टि-बिन्दु और जैन धर्म के विषय में मेरी भक्ति को समझने की चेष्टा न की। सान्त्वना के लिये मुझे निष्काम कर्मयोग का ही सहारा लेना पड़ा ।
फिर भी इतना तो मुझे सन्तोष है ही कि इस ग्रंथ से जन विद्वानों की विचार-धारा में काफ़ी परिवर्तन हुआ है । कुछ मित्रों के कथनानुसार निकट भविष्य में जैनधर्म इसी दृष्टि से पढ़ा जायण । हो सकता है कि मैं तब भी निन्दक ही कहलाता रहूं, परन्तु अगर इससे किसी की विचारकता जगी तो मैं अपनी निंदा को अपना सौभाग्य ही समझूग।
जैन जगत् में यह भाग ६-७ वर्ष पहिले निकला था । कुछ विद्वानों ने इसका विरोध किया था जिसका विस्तृत उत्तर