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भी तभी एक लेखमाला के द्वारा दे दिया गया था । पुस्तकाकार छपाते समय अगर वे सब उत्तर शामिल किये जाते तो काफ़ी पिष्टपेषण होता, कलेवर भी बढ़ता । इस बात में सब से अधिक चिंता की बात थी पैसों का ख़र्च | इसलिये विरोधी बन्धुओं के वक्तव्य को प्रश्न बनाकर उनका उत्तर बीचबीच में दे दिया गया हैं इससे पिष्टपेषण और शाब्दिक झगड़ों में जगह नहीं घिर पाई है । संशोधन करते समय यह चिन्ता बराबर सवार रहती थी कि पुस्तक बड़ी न होने पावे अन्यथा प्रकाशन - खर्च बढ़ जायगा । फिर भी यह भाग पहिले भाग से बढ़ ही गया, सवाये से अधिक हो गया, पर इसका कुछ उपाय न था । विशेष संशोधन सर्वज्ञचर्चा या चौथे अध्याय में ही किया गया है । पाँचवाँ अध्याय तो क़रीब क़रीब ज्यों का त्यों है ।
इस भाग के प्रकाशन में निम्नलिखित विद्वान सज्जनों से इस प्रकार सहायता मिली हैं । इसके लिये उन्हें धन्यवाद देने के बदले बधाई दूँ तो गुस्ताख़ी न होगी ।
२००) श्री नाथूरामजी प्रेमी बम्बई
२००) श्री मोहनलाल दलीचन्दजी देसाई बी. ए. एल- एल बी. बम्बई ।
७५) श्री कस्तूरमलजी बाँठिया प्रतिमाबाद |
फिर भी कुछ रकुम सत्याश्रम से लगाना पड़ी है । अगर इन सज्जनों की सहायता न मिलती तो और न जाने कितने वर्ष यह भाग जैन-जगत् की फायलों में सड़ता रहता जैसा कि अर्थाभाव से तीसरा भाग सड़ रहा है ।
तीसरे भाग में जैनाचार पर विचार हैं । ज्ञान के समान आचार भाग में भी काफ़ी क्रान्ति की गई है। नियम, साधु-संस्था