Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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और भिन्न ही रहेगा। भिन्न रहते हुए भी यदि अपने २ कर्तव्य का पालन करें तो दोनों मोक्ष-मार्ग के पथिक हैं। ____श्रावक संसार व्यवहार में रहते हुए, सावधानीपूर्वक व्रतों की मर्यादा को कायम रख कर संसार के सभी व्यवहारों में प्रवृत्ति कर सकता है, गृह व्यवस्था संभाल सकता है और प्रारम आराधना भी कर सकता है; विवेक पूर्वक कार्य करे तो श्राभव के स्थान में संवर भी निपजा लेता है परन्तु जो साधु धर्म अंगीकार करता है, वह संसार त्याग कर सम्पूर्ण निवृत्ति करता है तभी साधु. धर्म की आराधना हो सकती है अन्यथा नहीं। वह संसार व्यवहार के कोई कार्य में भाग नहीं ले सकता है। इस प्रकार श्रावक धर्म और साधु धर्म की कल्प मर्यादाएँ भिन्न २ हैं अपने २ कल्प-मर्यादानुसार हर एक को अपनी प्रवृत्ति रखनी चाहिये । ऐसी प्रवृत्ति रखते हैं वे अपने २ धर्म के आराधक हैं। ___ अब हम तेरह-पन्थी आम्नाय के सिद्धान्तों (मान्यतामों) का संक्षेप में यहाँ दिग्दर्शन करा कर, आगे प्रकरण-बद्ध छन मान्यताओं एवं उनकी दलीलों का न्याय पूर्वक उत्तर देंगे, यहाँ ' तो संक्षेप में पूर्व-पक्ष का दिग्दर्शन कराया जाता है। .. तेरह-पन्थी लोगों का एक सिद्धान्त यह है कि-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय यानी संक्षेप में प्रस और स्थावर सभी. प्राणि समान हैं। अतः . एक त्रस प्राणि की