Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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लेते हो संथारा कर लेना चाहिये था। भगवान ने भी जीवों की दया के लिए संथारा करने आहार पानी स्याग कर एक स्थान पर पड़े रहने की आज्ञा दी है। संथारे को श्राप भी पाप तो नहीं मानते, किन्तु धर्म ही मानते हैं। और आप कहते हैं
जो अनुकम्पा साधु करे तो, उपदेश दे वैराग्य चढ़ावे । चोखे चित पेलो हाथ जोड़े तो चारों ही आहार रो त्याग करावें ॥
( 'अनुकम्पा' ढाल पहली ) अर्थात् - साधु यह अनुकम्पा करते हैं, कि उपदेश देकर वैराग्य चढ़ाते हैं और यदि वह व्यक्ति प्रसन्नता से हाथ जोड़ता है, तो उसको चारों ही आहार का त्याग कराते हैं ।
इस प्रकार अनुकम्पा करके साधु दूसरे को चारों आहार का त्याग कराते हैं, तो स्वयं ही अनुकम्पा के लिए साधु होते ही संथारा क्यों नहीं कर लिया करते ? यदि कहा जावे कि समय से पहले संथारा करने की भगवान की आज्ञा नहीं है, तो क्यों नहीं है ? जीवित रहने से वायुकायिकादि जीवों की हिंसा होती है, यह आनते हुए भी भगवान ने समय से पहिले संथारा करने की आज्ञा नहीं दी, तो उन्होंने क्यों आज्ञा नहीं दी ? क्या वे चाहते थे, कि वायुकायिकादि जीवों की हिंसा की जावे ? जब उन्होंने वायुकायिकादि जीवों की हिंसा को जानते हुए भी समय
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