Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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जीवन के प्रश्नों
के साथ बना ही रहता है। दूसरे लोग निस्वार्थ भाव से, सेवा भाव से साधुओं के लिए सब कुछ कर सकते हैं; भोजन देते ही हैं, वख देते ही हैं, औषधि देते ही हैं, सेवा करते ही हैं, पर ये खुद अपने वर्ग के बाहर न किसी को भोजन दे सकते हैं, न श्रौषधि दे सकते हैं, न सेवा कर सकते हैं, क्योंकि वैसा करना साधुत्व के खिलाफ है। खिलाफ क्यों है, इसका जवाब तो शास्त्रों से माँगना होगा । इन साधुओं को लक्ष्य में रखकर ही मानों टाल्स्टाय ने लिखा होगा कि "उनके पास शास्त्रों के अलावा को हल करने का और कोई मार्ग ही नहीं है। अपने शास्त्र के बाहर को किसी भी नई बात पर स्वतन्त्र रूप से विचार करने की बात तो दूर रहो, वे दूसरे लोगों के ताजा मानवीय विचारों को समझने में भी असमर्थ होते जाते हैं। खास बात तो यह है कि ये जीवन का सर्वोत्कृष्ट समय जीवन के नियम को अर्थात् श्रम - . करने की आदत को भुलावे में ही खो देते हैं और बिना मिहनत किये ही संसार की चीजों के उपभोग करने का अपने को हकदार मानने लग जाते हैं। इस प्रकार वे बिल्कुल निकम्मे और समाज के लिए हानिकारक बन जाते हैं। उनके दिमाग बिगड़ जाते हैं और विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाता है ।"
मैं जानता हूँ कि साधु समाज के खिलाफ अपने सक्षे से सच्चे विचार प्रकट करना भी आज एक गुनाह समझा जाता है। इसलिए